देश मैं आज कल रोज़ हो रही चें - चें से तंग आ गया हूँ कोई कहता मुझे इस देश को छोड़ कर चला जाना चाहिये।
और कोई कहता क्यों जाएँ।
मेरी समझ से बहार हे की कब समझेगी ये वेवकूफ जनता सही क्या गलत क्या मुझे लगता हे इस देश की जनता को सब कुछ फ्री मैं मिले ,
जहाँ चाहें थूक दें जहाँ चाहें मूत दें .
लेकिन ये सब मैं क्यों लिख रहा हूँ ,
कहते हैं के देश मैं रहना सुरक्षित नहीं ,भाई मुझे याद हे, वो दिन जिस दिन इंद्रा गांधी को एक सिख ने मर दिया था । उस वक़्त मैं मथुरा मैं पड़ता था और रहता था बाद रेलवे कॉलोनी, रोज़ मुझे १० किलोमीटर ट्रैन से जाना होता था, मथुरा पड़ने के लिए
और उस दिन भी मथुरा गया जब अपने स्कूल पहुंचा तो देखा की स्कूल बंद वहां से अपने कुछ दोस्तों के साथ बाजार की तरफ चल दिया वहां जो देखा उसको देख कर हैरान था पुलिस खड़ी सिर्फ लाउड स्पीकर पर चिल्ला रही थी । और लोग दुकानों मैं आग लगा रहे थे जिसको जो मिल रहा था लूट रहा था लोग बेखौफ अपने काम को अंजाम दे रहे थे ।
उस वक़्त मेरी उम्र १३ साल की होगी मेरी समझ से सब बहार था तभी एक आवाज़ आई की कर्फू लग चूका हे देखते ही गोली मारने के आदेश ,मैंने भी डेम्पियर नगर से भागना चालू किया और स्टेट बैंक चौराहे आया देखा तो लगा क्या यही हे अपना देश , टायर के बीच मैं जिन्दा जला दिया था दंगाइयों ने,, डर से मेरा बुरा हाल था ।और फिर धोलीप्याऊ की, तरफ चल दिया ,वहां तो और भी बुरा हाल था ।
उस दुकान को लोग जला रहे थे लोग जिस दुकान से मैं कभी जूते पहना करता था । सब पागल थे वहशी की तरह हाथों
में न जाने क्या क्या लिया था और तीन मंज़िला घर की छतों पर मौत का नंगा नाच कर रहे थे । उस घर
सरदार जी थे और उनकी तीन बेटियां थी अंदर से दरवाज़े बंद थे लोगों ने चारों तरफ से घेर कर घर और दुकान को जला दिया था अंदर चार ज़िंदगी ,मुझे लगा अब ये लोग नहीं बच पाएंगे
मुझे बाद मैं पता चला की सरदार जी ने खुद अपनी तीनों बेटियों को अपनी तलवार से मार दिया था, क्या तब देश असहिष्णु नहीं था या सहिष्णु पता नहीं ,
इतना जनता हूँ की अपनी कुर्सी की खातिर लोग किसी को भी मार देते हैं। .
डरते वो लोग हैं जो ऐसे घरों मैं रहते हैं जहाँ परिंदा भी पर ना मार सके। मरता वो हे जो फूटपाथ पर जीवन बसर करता हे और वो माध्यम बर्गीय जीवन जीने बाले ,,,
यहाँ पर डर अगर कोई पैदा करता हे तो वो हे मीडिया
जो दिन भर चिल्लाता रहता हे, डर नहीं तो ?
बीच मैं थोड़ा सा भटक गया हूँ
जब धोली प्याऊ से मैं घर पहुंचा ।
देखा घर मैं तखत बन रहा था और उसको जसबिन्दर सरदार जी बना रहे थे ।
और मेरे पिता जी वहीँ पर खड़े हुए थे और रेडिओ पर समाचार आ रहे थे जो की सिर्फ डर पैदा कर रहे थे
कि तभी सरदार जी ने मेरे पापा की तरफ देखा ,,
पापा जी कुछ कहते ,, की सरदार जी ने कहा पंडित जी मुझे डर लग रहा
मेरे पापा ने कहा तुम चिंता न करो यहाँ क्या इस रेलवे कॉलोनी मैं तुमको कोई हाथ नहीं लगा सकता विस्वाश था अपने आप पर ।
तब क्या देश सहिष्णु था या असहिष्णु मुझे मालूम नहीं था लेकिन आज क्या हुआ हे ऐसा लगता हे सब जान बुझ कर किया जा रहा हे ,,
तभी एक दिन मुझे मेरे बड़े भाई ने बुलाया और कहा,ये ब्रेड और दूध ले कर जाओ।
कहाँ मैंने पूछा तो मुझे एक ब्लॉक का पता बता दिया
जैसे चला ,भाई ने कहा घंटी बजा देना मैंने कहा हाँ
और कुछ देर बाद मैं वहां पर घंटी बजाई अंदर से आवाज़ आई कौन
मैंने अपना नाम बोला दरवाज़ा खुला तो मैं ये देख कर दंग था
मेरे सामने सरदार जी थे मुझे नाम याद नहीं लेकिन वो मेरे सामने थे जिनके बालों को काट दिया गया था
उनको भी लोगों ने मारने की कोशिश की थी क्या यही हे वो आज हर चैनल पर हे ।
भाई बंद करो कुछ तो पॉजिटिव दिखाओ ।
राजनीति बंद करो इंसानियत तो दिखाओ
चलो आओ। …
सफ़र ज़िंदगी का